हिमालयी राज्यों में प्राकृतिक आपदाओं का कहर समय के साथ बढ़ रहा है। पहाड़ों पर अनियंत्रित निर्माण कार्यों ने प्रकृति को नाराज करना शुरू कर दिया है। पहाड़ी इलाकों में वनों की अंधाधुध कटाई और बड़े पैमाने पर निर्माण भारी तबाही का कारण बन रहे हैं। मौजूदा मानसून के दौरान कई हिमालयी राज्यों को गहरे जख्म मिले। बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन के कारण उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में जान-माल का भारी नुकसान देखने को मिला। भूस्खलन और बादल फटने की घटनाओं ने लगभग दो महीने दोनों राज्यों में सामान्य जनजीवन ठप कर दिया।
मानसून ने इस वर्ष हिमालय क्षेत्र की मौसम संबंधी घटनाओं के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता को उजागर कर दिया। 5 अगस्त को खीर गंगा नदी में अचानक आई बाढ़ गंगोत्री तीर्थयात्रा मार्ग पर स्थित धराली गांव को बहा ले गई। यह गांव अपनी खूबसूरती के लिए चर्चित रहा है। निकटवर्ती गांव हर्सिल भी तबाही से अछूता नहीं रहा। वहां सेना का बेस कैंप भूस्खलन की चपेट में आया और एक जेसीओ समेत कई सैन्यकर्मी और सौ से ज्यादा लोग लापता हो गए। धराली में चार मौतों की जानकारी मिली।
प्रत्यक्षदर्शियों और अधिकारियों ने इसकी तुलना 2021 की चमोली आपदा से की, जब हिमस्खलन के कारण आई बाढ़ ने ऋषिगंगा जलविद्युत परियोजना तबाह कर दी थी और तपोवन विष्णुगाड बिजली संयंत्र गंभीर क्षतिग्रस्त हुआ। उस समय 200 से ज्यादा लोग मारे गए थे।
उत्तराखंड के देहरादून के सहस्त्रधारा और मालदेवता क्षेत्रों में 16 सितम्बर 2025 को बादल फटने से व्यापक तबाही हुई, भारी बारिश, भूस्खलन और पर्यटक स्थलों पर अचानक आई बाढ़ से अनेक घर और होटल क्षतिग्रस्त हो गए। इस घटना में कम से कम 13 लोग मारे गए और कई लोग लापता हो गए। उत्तरकाशी और किश्तवाड़ में विनाशकारी बादल फटने से भारी जान-माल का नुकसान हुआ और बुनियादी ढाँचे को भारी नुकसान पहुँचा। पंजाब में नदियों का जलस्तर उफान पर है।
हिमाचल प्रदेश में भी बादल फटने, अचानक बाढ़ और भूस्खलन की घटनाओं में हज़ारों लोग विस्थापित हो गए। ये घटनाएँ एक चिंताजनक प्रवृत्ति को उजागर करती हैं। जलवायु परिवर्तन और मानवीय गतिविधियों के कारण हिमालय में गंभीर प्राकृतिक आपदाएँ लगातार बढ़ती जा रही हैं। पेड़ों की कटाई से पहाड़ अस्थिर हो रहे हैं, और अवैध निर्माण जमीन को भारी नुकसान पहुँचा रहे हैं।
पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन का मुख्य कारण अधिक वर्षा और वनों की कटाई है। अधिक वर्षा से मिट्टी में नमी बढ़ने के कारण भूस्खलन की संभावना बढ़ जाती है। वनों की कटाई से मिट्टी की स्थिरता कम होती है क्योंकि पेड़ों की जड़ें मिट्टी के कणों को मजबूती से बांधे रखती है। इससे चट्टानों से गिरने वाले मलबे के प्रवाह को नियंत्रित करने में मदद मिलती है।
पहाड़ी इलाकों में नदी के किनारे अवैध खनन के कारण ढलानें अस्थिर हो रही हैं और इससे भूस्खलन की संभावना बढ़ गई है। कंक्रीट के निर्माण पारंपरिक इमारतों की जगह ले रहे हैं, जिनमें पर्याप्त जल निकासी की व्यवस्था नहीं होती। जलविद्युत संयंत्रों और सड़कों जैसी बुनियादी ढाँचा परियोजनाओं के कारण वनों की कटाई और विस्फोट होते हैं, जिससे पहाड़ियाँ कमज़ोर हो रही हैं। पहले परंपरागत रूप से, गांव और शहर नदी तटों से एक निश्चित ऊंचाई और दूरी पर बसाए जाते थे। आज सभी नियमों को ताक पर रखकर तेजी से निर्माण हो रहे हैं।
कुछ वर्ष पहले जोशीमठ में जमीन के धंसाव ने लोगों को परेशान कर दिया था। उत्तराखंड के बागेश्वर जिले में अब इसी प्रकार का खतरा मंडरा रहा है। बागेश्वर में खड़िया या सोपस्टोन के विशाल भंडार हैं। एक मुलायम सिलिकेट चट्टान का उपयोग पेंट, कागज़ और सौंदर्य प्रसाधन बनाने में किया जाता है। जिले में दशकों से इसका खनन होता आ रहा है।
लेकिन हाल के वर्षों में खनन गतिविधियों के गंभीर पर्यावरणीय प्रभाव दिखने लगे हैं। लोग इन खदानों को अब अभिशाप मानने लगे हैं। उन्हें डर है कि कभी भी ज़मीन धंस सकती है और वे अपना पूरा गाँव खो देंगे। गाँववालों का कहना है कि पहले खनन हाथ से किया जाता था और यह स्थानीय लोगों के लिए रोज़गार का एक ज़रिया था। लेकिन बड़ी कंपनियों के आने से खनन कार्यों में मशीनों के उपयोग में तेज़ी आई है।
हांलाकि उत्तराखंड उच्च न्यायालय ने जून में बागेश्वर जिले में सोपस्टोन खनन सामग्री की नीलामी की अनुमति दे दी और राज्य सरकार को खनन किए गए गड्ढों को भरने का भी निर्देश दिया। नीलामी से प्राप्त धनराशि एक अलग बैंक खाते में रखी जाएगी। इस धनराशि का उपयोग पर्यावरण क्षतिपूर्ति के लिए किया जाएगा और यह न्यायालय की निगरानी में रहेगी। इससे पहले पर्यावरणीय चिंताओं के कारण अदालत ने राज्य सरकार को नदी के किनारे 15 मीटर के दायरे में खनन पर प्रतिबंध लगाने का आदेश दिया था।
आपदा की तैयारी एक साझा ज़िम्मेदारी है जिसके लिए नागरिकों की सक्रिय भागीदारी ज़रूरी है। नदी तटबंधों को मजबूत करना और अवैध खनन पर नियंत्रण करना बेहद जरूरी है। डॉप्लर रेडार का नेटवर्क बढ़ाना और स्थानीय स्तर पर प्रारंभिक चेतावनी प्रणालियों की स्थापना महत्वपूर्ण है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता से अचानक आने वाली बाढ़ और बादल फटने की सटीक भविष्यवाणी की उम्मीद बढ़ सकती है।
विशेषज्ञों का सुझाव है कि हिमालय के ऊंचे इलाकों- गौमुख से उत्तरकाशी को पर्यावरण-संवेदनशील क्षेत्र घोषित किया जाए। इस तरह की त्रासदी इन संवेदनशील इलाकों में अनियंत्रित निर्माण का नतीजा है। पर्यावरण की कीमत पर राजस्व अर्जित नहीं किया जा सकता। हालात ऐसे ही रही, तो वह दिन दूर नहीं जब सभी हिमालयी राज्य तबाह हो जाएंगे।
– कविता पंत (वरिष्ठ पत्रकार)