
सत्तापक्ष चाहे कांग्रेस का हो या भारतीय जनता पार्टी का—कोई भी दल पूर्णतः ईमानदार, निष्पक्ष और पारदर्शी नहीं होता। ये सभी दल एक-दूसरे के कल्पित पूरक ही हैं। जिस मुद्दे पर भाजपा चूक जाती है, वहाँ शायद कांग्रेस कुछ कर दिखाए—लेकिन यह भी उतनी ही कोरी कल्पना है। असल में सत्ता का अर्थ ही रसूख, रुतबा, घूसखोरी और भ्रष्टाचार बन चुका है। सियासत में कोई भी पूरी तरह दूध का धुला नहीं हो सकता। अगर आम आदमी सड़क, नाली, पेयजल व्यवस्था या छात्रहित की समस्याएँ उठाता है, तो समाज उसे पिछड़ा और “आउटडेटेड” कहकर किनारे कर देता है। आज के दौर में चाटुकारिता, जी-हुजूरी और चमचागिरी ही किसी युवा को आगे बढ़ाने का हथियार बन चुकी है। आज के युवा की सबसे बड़ी त्रासदी यह है कि उसकी मेहनत, उसकी शिक्षा और उसके संघर्ष की तुलना किसी नेता की एक मीठी मुस्कान से भी नहीं की जाती। यहाँ सच्चाई बोलने वाले को विद्रोही कहा जाता है और झूठे सपने बेचने वाले को मसीहा। यही वजह है कि ईमानदार सोच रखने वाला व्यक्ति राजनीति से दूरी बना लेता है। परिणामस्वरूप वही लोग सत्ता में पहुँचते हैं, जो हर हाल में जनता को सिर्फ वोट बैंक समझते हैं। सरकारें आती हैं और चली जाती हैं, लेकिन गरीब का दर्द हमेशा वहीं का वहीं रह जाता है। गरीब वर्ग उनके लिए जैसे नगण्य हो गया है। चुनावी मौसम में नेताओं की ज़ुबान से बड़े-बड़े वादे झरने की तरह बहते हैं, मगर चुनाव जीतते ही वही नेता नज़र नहीं आते। और जो थोड़े-बहुत ईमानदार होते भी हैं, वे अपने वादों का मुश्किल से 10-20% ही पूरा कर पाते हैं। हर सरकार कुछ ऐसे फ़ैसले भी लेती है, जिनसे जनता का भारी विरोध उठ खड़ा होता है। लोकतंत्र में कहा जाता है कि अगर आप महान व्यक्तियों से तुलना करना चाहते हैं, तो पहले अपनी कमियों पर काम कीजिए। लेकिन यहाँ हालात उल्टे हैं—नेता और जनता दोनों ही तुलना सीधे जापान जैसे विकसित देशों से कर लेते हैं। मेरा सीधा सवाल है: जब सरकार हमसे इतना टैक्स वसूलती है, तो सुविधाएँ युगांडा जैसी क्यों? अगर आप हमसे 30% की बजाय 60% टैक्स भी लें, तो कोई दिक्कत नहीं—लेकिन उसके बदले भोजन, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी बुनियादी ज़रूरतें तो मुफ़्त और सुलभ कराइए। यह न तो भाजपा की निंदा है और न कांग्रेस का समर्थन। यह तो बस एक कलमकार की कलम से निकले शब्द हैं—उन गरीबों, विद्यार्थियों और आम जन के लिए जो आज भी अपने हिस्से के विकास का इंतज़ार कर रहे हैं। और अब सवाल यह है कि—क्या हम हमेशा नेताओं के वादों पर भरोसा कर यूँ ही ठगे जाते रहेंगे, या कभी अपनी आवाज़ को सच में ताक़त बना पाएँगे?